Sunday, September 12, 2010

सिकन्दर (Alexander)




इतिहासज्ञ जिस व्यक्ती को सिकन्दर 'महान' के नाम से पुकारते है, उसके अंतिम संस्कार कि तैयारीया हो रही थी | काफी हुजुम उमड पडा था | जीते जी उसने काफी प्रभुत्व स्थापित किया था - अपनी महत्वाकांक्षा कि पूर्ती के लिये दुनिया मी एक बडे भू-भाग पार विजय कि थी | फिर भी उसके मन में यही रहता था कि काश ! मैं कुछ और जमीन जीत सकूं |

श्रध्दांजलि देने वालों मैं से एक अपने उदगार रोक नही पाया | कह ही दिया कि , है सिकन्दर महान, पृथ्वी के इतने बडे भाग के स्वामी बन कर भी आपकी चाह समाप्त नही हुई , अब सिर्फ दो गज जमीन ले कर आपको कैसा लगेगा !

यह बात सिर्फ सिकन्दर कि नही है | वह तो प्रतिक है | न्यूनाधिक रूप मैं यह बात हम सब पार लागू होती है , जाब हमारे १०० दिन पुरे होंगे तब हम क्या सोचेंगे ? उस समय जीवन कि उप्लाब्धीया, हानि लाभ, क्या खोया-क्या पाया आदी पार मनन चलेगा | क्या मकान बना लिया उसे ही उपलब्धी सामझेंगे ? या बच्चे बडे होकार अच्छे काम पार लाग गये अच्छी जगहो पर उनके शादी-ब्याह हो गए, इसे उपलब्धी मानेगे ? या फिर व्यापार का विस्तार दूर-दूर तक कर लिया इसे उल्लेखनीय बताएंगे ?

मृत्यू सामने खडी है और ये कह रहे है -"हे भगवान" मुझे जीवन का सिर्फ एक वर्ष और दे दे , धर्मशाला बनवा दुं | धन तो खूब है नही तो एक पाठशाला बनवा दुं एक वर्ष नही तो दो-चार महीने ही सही | एक प्याऊ लगवा दुं |

मृत्यू का अट्टहास सुनाई देता है -"जीवन के पेपर के तीन घंटे पुरे हुए | अब एक क्षण भी नही मिलेगा |" और सब कुछ खत्म!
आईये, जीवन मैं कोई ऐसी उपलब्धी हासिल करने का प्रयास करें जिस पर हम गर्व कर साकें |

आपका आपना,

कैलाश 'मानव
'

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